सुख की परिभाषा व सीमा मैं निर्धारित नहीं कर पाता । फिर भी कुछ ऎसे क्षण अनायास टकराते हैं कि मन एक अनाम आह्लाद से भर जाता है । हमारे हृदय को क्या पुलक से भर देता है, क्या नहीं ? इसको आप क्या शब्दों की सीमा में बाँध सकते हैं ?  जैसे कि पोपले मुँह यह हँसी क्या कह रही है ?

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इन छवियों की निष्कलुषता स्वयं ही प्रमाण है ! यह जीवन के दो अलग अलग छोर पर हैं, पर ऎसे हास्य की कोई आयुसीमा तो होती नहीं, क्यों ? कभी उदर क्षुधा शांत होने के बाद के चेहरे की आश्वस्ति को आप पढ़ पाये हैं ? नहीं ना ? तो फिर उनमें निहित भाव आप तक कैसे प्रेषित हुआ ? आश्चर्य है !

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इनको ही देखें ! अलग अलग देश, इनका अपना अलग ही परिवेश, अलग अलग भाषा फिर भी इनको आप भली भाँति पढ़ व समझ पा रहे हैं । कैसे ? निश्चित ही यह आपको किसीने सिखाया न होगा । ऎसे संप्रेषण की क्षमता यह सहज ही अपने में समेटे हैं और हम  आप भी एक दूसरे को पढ़ लेते हैं ! यह सुख दुःख की भाषा आख़िरकार देश, काल, धर्म, जाति इत्यादि के बहुत ऊपर स्वतः अपने को प्रेषित कैसे कर लेती है ? आश्चर्य है, हाँ वह तो है ही !